रविवार, 26 दिसंबर 2010

कौन हिट कौन पिट


हरिभूमि २६-१२-२०१०

१८-१२-२०१०


हरिभूमि ११-१२-२०१०

फराह मार खान

फराह खान तीस मार खान के बाद अगली फिल्म कब बनायेंगी?
इस प्रश्न का जवाब ???
इतनी मार खाने के बाद फराह मार खान अगली फिल्म ज़ल्दी कैसे बना सकती हैं।

शहजाद पद्मसी और बॉलीवुड २०१०




शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

मेरा समुद्र मंथन

मुझे डूबना अच्छा लगता है
यादों के समंदर में ।
मैं उतरता जाता हूँ
गहरा और गहरा
समंदर के अन्दर
...और अन्दर
जहाँ मुझे मिलते हैं
एक से बढ़ कर एक
बेशकीमती मोती
किये गए भले बुरे कामों के
उनसे मिले सबक के।
वही तो बताते हैं कि
मैंने क्या गलत किया
अब उन्हें सुधार कर
क्या अच्छा कर सकता हूँ।
इस समुद्र मंथन के बाद
जब मैं बाहर आता हूँ
तब खुद को
पहले से ज्यादा
मालामाल महसूस करता हूँ।
इसीलिए मुझे
डूब जाना पसंद है
यादों के समंदर की गहरायी में ।

तो भिडिये

क्या आप समझौता करना चाहते हैं ?
तो फिर भिडिये।
यदि भिड़ेंगे नहीं,
तो सामने वाले की
ताक़त कैसे जानेंगे?
क्यों किया जाये समझौता,
कैसे समझेंगे ?
क्योंकि,
समझौता तो ताक़तवर से किया जाता है,
जिसे हराया नहीं जा सकता,
जिसे दबाया नहीं जा सकता।
कमजोर तो,
मारने के लिए है,
जीतने के लिए है।

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

जब जुड़ना ही है तो.....ब्रेक के बाद क्यूँ?


चोपडाओं और जोहरों का फिल्म बनाने का अपना तरीका है। इसमें वह दर्शकों को आकर्षित कर पाने में सफल भी होते रहे हैं, इसलिए वह अपनी इस शैली पर खुद ही फ़िदा हैं। अब ये बात दीगर है कि इन फिल्मकारों की इस घिसी पिटी शैली से दर्शक ऊबने लगे हैं। यश चोपड़ा की प्यार इम्पोसिबिल तथा जोहर की वी आर फॅमिली और आइ हेट लव स्टोरीज की असफलता इसका प्रमाण है। कुनाल कोहली भी इसी स्कूल से हैं। इसी लिए उनकी नयी फिल्म ब्रेक के बाद में चोपडाओं और जोहरों की झलक नज़र आती है। अभय गुलाटी और आलिया खान बचपन से साथ पले बढे हैं। अभय आलिया से प्रेम करता है और शायद आलिया भी। पर ना जाने क्यूँ आलिया ब्रेक लेना चाहती है और अभय इसे मान भी लेता है। क्यूँ ? यह कुनाल जाने। आलिया ऑस्ट्रेलिया चली जाती है। अभय भी पीछे पीछे जाता है। आलिया को फिल्म की हिरोइन बनाने का अवसर मिलाता है। वह अभय को ठुकरा कर फिल्म स्वीकार लेती है। अभय भारत वापस होने के बजाय खानसामा बन जाता है। इतना अच्छा खाना बनता है कि होटल खोल लेता और देखते ही देखते होटल की चेन खुल जाती हैं। माँ बाप के कहने पर शादी करने के लिए तैयार हो जाता है। आलिया को मालूम पड़ता है तो वह भारत वापस होती है कि अभय ने अपनी शादी के बारे में पहले उसे क्यूँ नहीं बताया। फिल्म के अंत में पता चलता है कि अभय आलिया को पाने के लिए यह सब कर रहा था। इस फिल्म के दौरान और ख़त्म होने पर दर्शक सोचता रहता है कि फिल्म में कुछ भी क्यूँ हो रहा था। बिलकुल फ्लैट तरीके से फिल्म चलती है, घटनाएँ घटती हैं एक्टर अभिनय करते हैं। किसी भी फ्रेम में कुछ भी नया नहीं। अभिनय भी कहानी की तरह बासी है। इमरान बन्दर की तरह मुह बनाते हैं, अपने मामू का नाम डुबोते हैं। दीपिका पादुकोण इतनी अगली कभी नहीं लगी। फिल्म जब ख़त्म होती है, तब दर्शक खुद से पूछता है जब जुड़ना ही था, तो....ब्रेक के बाद क्यूँ?

रविवार, 14 नवंबर 2010

विश्व में सबका प्यारा हैरी पॉटर



हैरी पॉटर एंड डेथली होलोज पार्ट वन हैरी पॉटर श्रंखला की सातवीं और इस श्रंखला के आखरी पड़ाव से पहले का एक पड़ाव है। एक ब्रितानी महिला द्वारा अपनी घरेलू ऊब को मिटाने के लिए रचा गया हैरी पॉटर विश्व भर के पाठकों को इतना पसंद आएगा, किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। इस सीरीज का पहला उपन्यास हैरी पॉटर एंड द फिलोस्फ़र्स स्टोन ३० जून १९९७ को ब्रिटेन के बुक स्टोर में आया। अमेरिका में इसे हैरी पॉटर एंड द सोर्सर्स स्टोन शीर्षक से जारी किया गया। चार साल पांच महीने बाद इस उपन्यास पर हैरी पॉटर सीरिज की पहली फिल्म द सोर्सर्स स्टोन रिलीज़ हुई। १५२ मिनट लम्बी डैनियल रेडक्लिफ, रुपर्ट ग्रिंट और एमा वाटसन अभिनीत और क्रिस कोलंबस निर्देशित १२५ मिलियन डॉलर की इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर ९७४ मिलियन डॉलर से अधिक की कमायी की। क्रिस कोलंबस ने इस सीरीज की दूओसरी फिल्म द चैम्बर ऑफ़ सीक्रेट्स का भी निर्देशन किया। नवम्बर २००२ में प्रदर्शित १६१ मिनट लम्बी द चैम्बर ऑफ़ सीक्रेट्स के निर्माण में १०० मिलियन डॉलर खर्च हुए थे। फिल्म की कुल कमाई ८७८ मिलियन डॉलर थी। कोई दो साल बाद इस सेरिज का तीसरा भाग द प्रिजनर ऑफ़ अज़कबन रिलीज हुई। १३० मिलियन डॉलर की इस फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर कुल कमाई ७९५ मिलियन डॉलर से अधिक थी। इस फिल्म का निर्देशन अलफोंसो क्युरान ने किया था। द गोब्लेट ऑफ़ फायर नवम्बर २००५ में रिलीज हुई। माइक न्यूमन की १५० मिलियन डॉलर वाली इस फिल्म ने कुल ८९५ मिलियन डॉलर की कमाई की थी। इस फिल्म को सीरिज की अन्य फिल्मों से अच्छा वीकेंड मिला था। पांचवी फिल्म आर्डर ऑफ़ द फिनिक्स का निर्देशन डेविड यातस ने किया था। २००७ में प्रदर्शित १५० मिलियन डॉलर की इस फिल्म ने ९३८ मिलियन डॉलर कमाए। सीरिज की छटी फिल्म द हाफ-ब्लड प्रिन्स १५ जुलाई २००९ को प्रदर्शित हुई थी। डेविड द्वारा निर्देशित २५० मिलियन डॉलर में बनी १५३ मिनट लम्बी इस फिल्म ने ९३३ मिलियन डॉलर कमाए। यदि इस सीरिज की फिल्मों की कमायी को मुद्रा स्फीति से समायोजित न किया जाये तो भी इस सीरिज की छः फिल्मों ने श्रंखला फिल्मों में सबसे अधिक ५.४ बिलियन डॉलर से अधिक कमा लिए हैं। इस सीरिज के सभी भाग आल टाइम हिट फिल्मों के चार्ट में शामिल हैं। जे के रोलिंग के सातवें उपन्यास पर द दैथली होलोज पर बनायी जा रही फिल्म को दो भागों में बाँट दिया गया है। सातवां भाग जहाँ १६ नवम्बर को रीलिज हो रहा है, वही अठावन और अंतिम भाग अगले साल जुलाई में रीलिज होगा। द डेथली होलो के निर्माण में २५० मिलियन डॉलर खर्च हो चुके हैं। इन दोनों भागों का निर्देशन डेविड यत्स ही कर रहे हैं। द डेथली होलो का पार्ट२ थ्री डि प्रभाव में भी रीलिज किया जायेगा। हैरी पॉटर सीरिज की फ़िल्में अपने आप में चमत्कार सरीखी हैं। यह ऎसी फ़िल्में हैं, जिन्हें बच्चों के साथ साथ बड़ों ने भी देखा। डेथली होलोज पार्ट वन तक इस सीरिज की सात फिल्मों की कुल लम्बाई १०४९ मिनट है। इन फिल्मों के निर्माण में कुल १२८० मिलियन डॉलर खर्च हुए। पर इतनी महंगी फिल्मों में से पहली छः फिल्मों ने इसके निर्माता डेविड हेमन को निराश नहीं किया। सीरिज की अब तक छः फिल्मों ने ५४१७ मिलियन डॉलर से अधिक कमा कर हेमन को वापस कर दिए हैं। इतनी कमायी जेम्स बोंड सीरिज की २२ फिल्मों और स्टार वार्स श्रंखला की छः फ़िल्में भी नहीं कर सकी हैं। लोकप्रियता के लिहाज से हैरी पॉटर ने जेम्स बोंड के अलावा स्टार वार्स, इंडियाना जोन्स, टर्मिनेटर, जुरेसिक पार्क, द मैट्रिक्स, द लोर्ड ऑफ़ द रिंग्स, आदि श्रंखला फिल्मों को भी पीछे छोड़ दिया है।

शनिवार, 13 नवंबर 2010

इस करवाचौथ में

मेहंदी लगी मेरे हाथ


मैं घर की रोशनी हूँ













मैं हूँ पुजारिन











तू ही मेरी पूजा






हिंदी फिल्मों में आम आदमी बनाम कामन मैन


मंगलवार, 9 नवंबर 2010

आदमी के सर वाला कुत्ता

एक बार मुझे
कुत्ता बनने का शौक़ चर्राया ।
मैं दोनों हाथ और दोनों पैरों के बल
खड़ा हो गया।
फिर मुंह उठा कर
लगा जोर जोर से भौंकने।
सामने से गुज़रते लोग
कुछ ज्यादा ही डर गए,
एक आम कुत्ते के भौंकने से उपजे डर से ज्यादा
डर था ऊनके चेहरों पर।
क्यूंकि,
यह कुत्ता
कुछ ज्यादा अजीब था,
आदमी से सर वाला
कुत्ते सी आवाज़ वाला !!
पता नहीं कितना खतरनाक हो !!!
हालाँकि भौंकने वाले कुत्ते काटते नहीं,
यह सुना था,
पर आदमी सी शक्ल वाला कुत्ता
कभी देखा नहीं था।
पता नहीं यह कवाहट उसके ऊपर बनी थी या नहीं।
इसलिए सभी का ज्यादा भयभीत होना स्वाभाविक था,
लोगों का भय देख कर
मुझे बहुत मज़ा आया।
उनका आतंक मुझे गदगद कर दिया
उसके बाद से आज तक
मैं -
आदमी सी शक्ल वाला कुत्ता बन
अपने चारों हाथ और पैरों पर खड़ा होकर
भौंकता चला आ रहा हूँ।

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

भ्रष्ट भी, और अब आलसी भी

अख़बारों में खबर पढ़ कर बड़ा अजीब सा लगा। हमारे देश के उद्योगों में अब विदेशी प्रवेश हो गया है। विदेशी कंपनियां आती तो बात दूसरी थी, यहाँ तो विदेशी लेबर हमारे देशी उद्योगों में पाँव जमा रहा है। चीनी मजदूरों का हमारे उद्योगों में योगदान हमारे लिए शर्म की बात है। किसी तकनीकी ज़रुरत के कारण चीनी मजदूरों का आना समझ में आता है। मगर, वोह इसलिए हमारे देश के उद्योगों में ज़गह पायें, कि हम आलसी हैं, हमारे लिए सचमुच शर्म की बात है। अभी तक हम भ्रष्टाचार के मामले में अन्य देशों को चुनौती पेश कर रहे थे, अब हमारा आलसी भी होना, यह साबित करता है कि हम लोग पतित से पतित होते जा रहे हैं। हमारा जन गन मन पतित है और कुछ ज्यादा पतित होता जा रहा है। क्या कभी हम इससे उबरने की कोशिश करेंगे?

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

ऑफिस में मेरा अंतिम दिन

३० सितम्बर २०१०। ऑफिस में मेरा आखरी दिन । आम तौर पर उस दिन फाइल नहीं की जातीं। सो मुझे भी फाइल नहीं भेजी गयीं। मैंने केवल एक फाइल की, अपने कार्य भार छोड़ने के प्रमाण पत्र पर निदेशक के काउंटर साइन हेतु। मैंने यह सब बिलकुल मशीन की तरह किया। मुझे अपनी ३३ साल की सेवा के बाद अकस्मात् ही स्वेच्छिक सेवा निवृति लेनी पड़ी। परिस्थितियां कुछ ऎसी थीं कि जीने या नौकरी करने में से किसी एक को चुनना था। मैंने नौकरी छोड़ना उचित समझा। इस नौकरशाही, इस शासन में कुछ ऐसा परिवर्तन हो गया है कि सत्ता और शासन ने सोचना छोड़ दिया है। ईमानदारी अनावश्यक हो गयी है। आप नौकरी क्यूँ छोड़ रहें है, कोई पूछने वाला नहीं, कोई परवाह करने वाला नहीं। मुझसे भी किसी ने पूछा नहीं, मेरी कठिनायीं जानने की कोई कोशिश नहीं की गयी। ३३ साल की प्रतिबद्ध सेवा का पुरूस्कार त्यागपत्र बड़े निरपेक्ष रूप से स्वीकार कर लेने के रूप में मिला। इसीलिए, जब मैंने अंतिम दिन कार्य भार प्रमाणक पर हस्ताक्षर किये तो एक पल भी कोई गिला, शिकवा नहीं था। शायद मैं भी हृदयहीन शासन सत्ता की तरह हो गया था।

रविवार, 27 जून 2010

कुछ यह भी

ढूँढने से जग में खुदा मिल जाता है यारो,

जो मिलता नहीं वह खुदा नहीं होता ।

आसमान में जितने तारे, तम्मनाये उतनी पालो,

छूने को आसमान हो तो तम्मनाओं की क्या बिसात?

जब पैदा हुआ मैं रो रहा था लोग हंस रहे थे,

आज मैं मर गया हूँ, तो लोग रो रहे हैं।

लोगों को समझना इतना आसान नहीं यारो,

मेरे लिए अजनबी हैं, उनके हरूफ।

रविवार, 20 जून 2010

फादर्स डे

हे पिता,
आज तुम्हारा दिन है
रोज तो हमारा दिन होता है,
तुम घर के एक कोने में दुबके रहते हो।
मैं और मेरी पत्नी के दोस्तों से,
उनकी गिटपिट इंग्लिश से भयभीत ।
हम लोगो के बच्चों से सकपकाते हो
उनकी माम डैड वाली अंग्रेजियत से,
उनकी उपेक्षित नज़रों से।
हे पिता,
तुम पुराने विचार
पुराने पहनावे वाले हो।
इसलिए हर दिन तुम्हारा नहीं हो सकता,
तुम्हे पार्टीज में नहीं बुलाया जा सकता।
फिर भी
क्यूंकि तुमने हमें पैदा किया है
इसलिए
उस एक दिन की याद में
हम मनाते हैं फादर्स डे
ताकि तुम्हारे जैसा कोई
कह न सके कि
आज की पीढ़ी कल को भूल गयी।




बुधवार, 16 जून 2010

दुःख का निवारण : पूजा पाठ

मेरी आज अपने एक सहयोगी से बात हो रही थी। वह इधर काफी समय से परेशान हैं। शारीरिक व्याधियां सता रही हैं। चोट चपेट लग रही है। कहने लगे की मृत्युंजय जाप कराना है। इसके लिए पैसा उधार लिया है। मैंने कहा तुम थोड़ी तनख्वाह पाते हो। कैसे करोगे यह सब। जो अपने बच्चों के लिए करना चाहते हो, वह जाप आदि में ही निकल जायेगा। बच्चों के साथ अन्याय नहीं कर रहे? बोले तो क्या करें। सब कुछ बुरा हो रहा है। मैंने कहा यह क्यूँ नहीं सोच रहे कि जो होनी है वह हो रही है। यह क्यूँ नहीं सोच रहे कि ज्यादा बुरा नहीं हुआ, कम बुरे से सब टल गया। थोड़ा रुक कर उनसे फिर पूछा तुम ईश्वर पर विश्वास करते हो। ईश्वर जो तुम्हारे लिए शुभ है, वही कर रहा है, इस पर विश्वास करते हो। उन्होंने कहा हाँ मैं विश्वास करता हूँ। तब मैंने कहा तो उसके लिखे विधान पर पूजा पाठ क्यूँ? तुम ईश्वर को मजबूर क्यूँ करना चाहते हो कि वह वैसा ही करे, जैसा तुम चाहते हो। क्या यह ईश्वर के कार्य में दखल नहीं? क्या तुम ईश्वर बनना चाहते हो? वह सहमत होने के बावजूद सहमत नहीं थे। बोले पर मेरे साथ जो कुछ हो रहा है, उसका निवारण तो होना ही चाहिए। इस पर मैंने पूछा, क्या तुम ऐसा समझते हो कि पूजा पाठ, तंत्र जाप से सब कुछ ठीक हो जाता है। यह तो बड़ा आसान हुआ। लेकिन, तब तो ऎसी दशा में किसी को दुखी होना ही नहीं चाहिए। हमारा देश हर धर्म के मंदिर, मस्जिद, गिरिजा और गुरुद्वारा वाला देश है। हर घर, हर गली-नुक्कड़ पर कोई न कोई धार्मिक स्थल मिल जायेगा। रास्ता घेरते ये धार्मिक स्थल लोगो को नमन करने पर मजबूर कर देते हैं। तब ऐसे देश में इतना प्राकृतिक प्रकोप क्यूँ? क्या सारे धर्मों के ईश्वर इसे रोक नहीं सकते? रोक सकते हैं, पर रोक नहीं रहे? इसका मतलब यह हुआ कि यह होनी है। तब उसे टालने के प्रयास में अनावश्यक धन और समय की बर्बादी क्यूँ? वह एक बार फिर सहमत हो कर भी असहमत थे। जल्द ही वह पूजा पाठ करवाएंगे। में देखना चाहता हूँ कि उनका दुःख कष्ट मिटा या नहीं।

बकवास

मुझे राम से काम नहीं, रावण से काम चल जायेगा।

सिक्का खोटा ही सही, अंधे बाज़ार में चल जायेगा।

दुनिया को लाख समझाओ, समझेगी नहीं,

भरे बाज़ार में रोता ही रह जायेगा।

जानते हो कि दुनिया चार दिन की है,

पर सामान सौ बरस का जोड़ते हो,

बिजली से श्मशान में जलोगे,

पर कोठी आलीशान जोड़ते हो।

अरे,किसी पराये को अपना बनाओ,

रिश्ते सब अपने ही तोड़ते हैं।

मंगलवार, 15 जून 2010

सिनेमा और मूछें


टिप्पणियां

मैंने तो चाँद सितारों की तमन्ना की थी
मुझे ऐसी बीवी मिली जिसके चाँद से चहरे पर चेचक के दाग थे।
मै तो चला जिधर मिले रास्ता
पीने के बाद मेरे साथ अक्सर ऐसा हो जाता है।
पहला पहला प्यार है, पहली पहली बार है
हर खूबसूरत लड़की से यही कहा जाता है।
यादे न जाए बीते दिनों की
महीने की पहली तरीख के बाद ऐसा ही होता है।

सोमवार, 14 जून 2010

आदमी

एक आदमी

ऊँचाई से गिरा

और मर गया ।

इससे पहले

वही आदमी

'खुद' से गिरा था

पर

बेशर्मी से

हँसता रहा था।

अरे भैया,

ऊँचाई का फर्क

आदमी ही जानता है।

शनिवार, 12 जून 2010

बिना भाव का रावण


यह महज़ इत्तेफाक हो सकता है कि अपने कैर्रिएर के दस साल पूरे होने के ठीक दस दिन पहले अभिषेक बच्चन की फिल्म रावण रिलीज़ होने जा रही है । अभिषेक बच्चन की पहली फिल्म रिफ्यूजी ३० जून २००० को रिलीज़ हुई थी। रावण उनकी ४२ वीं फिल्म है। पर दस साल में ४२ फ़िल्में अभिषेक बच्चन के बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ सितारा होने का प्रमाण नहीं। उनके खाते में डेल्ही ६, द्रोण, सरकार राज, झूम बराबर झूम, उमराव जान, कभी अलविदा ना कहना, नाच, रक्त, रन, मुंबई से आया मेरा दोस्त, मैं प्रेम की दीवानी हूँ, ॐ जय जगदीश, शरारत, बस इतना सा ख्वाब है, ढाई अक्षर प्रेम के, तेरा जादू चल गया, रेफूजी, आदि सुपर फलों फ़िल्में दर्ज हैं। इनमे ज्यादातर बड़े बजट की फ़िल्में थीं। इतनी फ्लॉप फ़िल्में देने के बाद क्या कोई अभिनेता दस साल तक अपनी गाड़ी खींच सकता है? हाँ, यदि उसका पिता भी अमिताभ बच्चन हो। सच कहा जाए तो अभिषेक अपने पिता का बोया हुआ ही काट रहे हैं। गुरु और युवा जैसी फिल्मों के अलावा अपनी अन्य तमाम फिल्मों में अभिषेक बच्चन अभिनय के लिहाज़ से नाकाम साबित हुए हैं। उन्हें डांस करना बिलकुकल नहीं आता। रोमांस के नाम पर जीरो हैं। रील लाइफ प्रेमिका के सामने भी टफ बने खड़े रहते हैं । ऐसा लगता है जैसे किसी पहलवान से पंजा लड़ने जा रहे हों । संवाद अदायगी में वह कमज़ोर हैं। उनका चेहरा भावहीन बना रहता है। मणिरत्नम जैसे डिरेक्टर उनसे अभिनय करा सकते हैं। पर उनसे अभिनय करा पाना हर किसी के दम का बूता नहीं। इसके बावजूद उनके पास फ़िल्में हैं, तो यही कहा जा सकता है कि उन्हें अपने पिता के सुपर स्टार से बने रसूख का फायदा मिल रहा है। अन्यथा दसियों फ्लॉप फिल्मों के हीरो को कौन अपनी फिल्म का हीरो बनाना चाहेगा ? आइये चलें रावण को देख लेते हैं।

गुरुवार, 10 जून 2010

एक सेकंड जो ज़िन्दगी बदल दे


पार्थो घोष की इस शुक्रवार रिलीज़ हो रही फिल्म एक सेकंड जो ज़िन्दगी बदल दे का केवल लेखा जोखा रखने के लिहाज़ से ही महत्व है। ये फिल्म उन पार्थो घोष की फिल्म है, जिन्होंने अग्निसाक्षी, १०० डेज युगपुरुष जैसी फ़िल्में दी हैं। यह फिल्म जैकी श्रोफ और मनीषा कोइराला की उस जोड़ी की फिल्म है जिसने अग्निसाक्षी, १९२०-अ लव स्टोरी, युगपुरुष, लज्जा और ग्रहण जैसी फ़िल्में साथ साथ की हैं। इसके अलावा एक सेकंड जो ज़िन्दगी बदल दे का अन्य कोई महत्त्व नहीं। अब मनीषा-जैकी जोड़ी में अग्निसाक्षी और युगपुरुष वाली बात नहीं । दर्शकों के दिलो दिमाग में मनीषा का मासूम, नेपाली सौन्दर्य कोई एहसास पैदा नहीं करता। जैकी अब दर्शकों के पसंदीदा जग्गू दादा नहीं रहे। पार्थो घोष के निर्देशन में भी अग्निसाक्षी और १०० डेज वाली बात नहीं रही। अब यह तीनों अलग अलग या एक साथ भी दर्शकों को आकर्षित नहीं कर पाते। अलबत्ता, यदि मनीषा ने अपने अभिनय के जोहर दिखाए, क्यूंकि यह फिल्म उन पर ही केन्द्रित है, तो वह जता सकेंगी कि मुम्बैया फिल्म उद्योग ने उनके टैलेंट का उपयोग नही किया । हिंदी फिल्मों के दर्शकों को अफ़सोस होगा कि एक अच्छी अभिनेत्री ने अपने कैरिअर को शराब और प्रेमियों में यूँही असमय डुबो दिया। इसमें एक सेकंड का क्या दोष?

बुधवार, 9 जून 2010

क्यूंकि

मेरे पास एक घर है, एक छत है,

फिर भी मैं दुखी हूँ,

क्यूंकि मेरे पड़ोसी की छत चूती नहीं।

मेरे पास दो जोड़ कपडे हैं,

फिर भी मैं दुखी हूँ,

कि मेरे पडोसी के कपडे मुझसे चमकदार कैसे।

मैं और मेरा परिवार दो वक़्त की रोटी खा लेता है,

फिर भी मैं दुखी हूँ,

कि सामने की झोपडी के ग़रीब

भूखे भी कैसे हंस लेते हैं।

मैं दुनिया का सबसे दुखी व्यक्ति हूँ

क्यूंकि,

मेरे आस पास के लोग खुश हैं।

रविवार, 6 जून 2010

दोस्त और दुश्मन

मुझे शिक़वा है उन दोस्तों से

जो पीछे से वार करते हैं,

उनसे अच्छे वह दुश्मन

जो सामने नज़र आते हैं।

जीना और मरना

मैं जिया कुछ इस तरह

कि मरने वाला शर्मसार था।

मैं मरा कुछ इस तरह

कि जीने वाला जार जार था।

जीने और मरने में

फर्क इतना है यारों,

कोई जीने के लिए जीता है,

तो कोई मर कर भी जीता है।

इत्मीनान

मैं दिन भर सोचता रहा-

क्या करुँ, क्या न करुँ।

यह करुँ, यह न करुँ।

इसी उधेड़बुन में

पूरा दिन बीत गया।

रात आयी

और मैं

चादर तान कर सो गया।

शनिवार, 5 जून 2010

शुक्रवार, 4 जून 2010

बूँद

मैं और मेरे दोस्त ने देखा
एक बूँद को,
आसमान से गिरते हुए।
बूँद ज़मीन पर गिरी
और धूल में मिल गयी
दोस्त बोला-
आह ! धूल में मिल गयी।
मैंने उसे रोका
और कहा-
ज़रा देखो
बेशक,
धूल मिटटी में मिल गयी है,
पर उसके मिटने का निशाँ बाकी है।
धूल नम हो गयी है,
बूँद की यही खासियत
धूल को जीवनदायी बना देगी
ज़रुरत एक बीज की है
बूँद को धूल में मिलाने वाली
कल एक पौंधे को जन्म देगी।

गुरुवार, 3 जून 2010

बस की पांच कवितायेँ.

बस

अँधेरे की कोई उम्र नहीं होती,

बस,

उजाले की एक किरण चाहिए।

(२)

मुझे हाथ बढाने में

कोई ऐतराज़ नहीं

बस, एक हाथ

आगे बढ़ना चाहिए ।

(३)

मेरा ज़ीने का अंदाज़ निराला है,

बस,

मैं थोडा बेफिक्र हूँ।

(४)

वह बड़ी देर तक

मेरे सामने खड़ा रहा

बस, मैं था कि

आसमान के खुदा को देखता रहा।

(५)

मैं बस में चढ़ा

वह बस में चढ़ी,

बस आगे बढ़ी,

उन्हें झटका लगा।

वह मुझ पर गिरी,

मैंने उनको संभाला।

बस आगे बढ़ी,

बात आगे बढीk,

इतना बढी कि

गली मोहल्ले तक बढ़ी,

मैंनेh कहा बस।

हम दोनों ने शादी की

हनीमून मनाया बस पर चढ़ कर।

अब सब कुछ बस है।

मैं जैसे ही कुछ बोलता हूँ,

वह कहती हैं-

बस ।

बुधवार, 2 जून 2010

ये तो सोचा न था.

ये कैसी विडम्बना है? २१ मई को निर्माता राकेश रोशन की अनुराग बासु निर्देशित और हृथिक रोशन और बारबरा मोरी अभिनीत फिल्म काइट्स रिलीज़ हुई थी। फिल्म से सभी को बेहद उम्मीदें थीं। मगर हुआ क्या? काइट्स हिंदुस्तान के तमाम सिनेमाघरों से अच्छा वीकेंड बिताने के बाद, बुरी तरह से असफल फिल्म घोषित कर दी गयी। लेकिन उस समय जब काइट्स हिंदुस्तान के बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी थी, सुदूर अमेरिका में यह फिल्म टॉप टेन पर विराजमान होने वाली पहली हिंदी फिल्म बन गयी थी। ऐसे में यह उम्मीद लगाना स्वाभाविक था कि काइट्स का विदेशी संस्करण काइट्स-द रीमिक्स ज़बरदस्त सफलता हासिल करेगा। यह उम्मीद भी स्वाभाविक थी। क्यूंकि काइट्स के अंतर्राष्ट्रीय संस्करण के लिए संपादन का काम होलीवुड के मशहूर डिरेक्टर ब्रेट रैटनर कर रहे थे। ब्रेट ने दो घंटे से ज्यादा की लम्बाई वाली काइट्स को काट पीट कर नब्बे मिनट की कर दिया था। इतनी लम्बाई होलीवुड के दर्शकों को रास आती है। मगर हुआ कुछ और ही। अपने हिंदी संस्करण से पहले वीकेंड में एक मिलियन डालर की कमी करने वाली काइट्स का रीमिक्स संस्करण मात्र ३.३७ करोड़ ही कमा सका। दरअसल काइट्स के साथ सबकुछ खराब ही हुआ था। अनुराग बासु रोमांस और क्राइम का थ्रिलर मिश्रण कर लेते हैं। उनके लिए कहानी भी वैसी ही ली गयी थी। मगर काइट्स को इंटरनेशल फेस देने के चक्कर में मक्सिको की अभिनेत्री बराबर मोरी को लेना, स्पेनी भाषा में संवाद और बोल्ड रोमांस का तड़का दिया जाना मजबूरी हो गयी । नतीजे के तौर पर अनुराग के हाथ से सब कुछ निकलता चला गया । एक बात और। फिल्म में हृथिक रोशन एक चालू चीज़ है। वह पैसे के लिए फर्जी शादियाँ भी करता है। इसके लिए वह नापसंद करते हुए भी कंगना से शादी करने को तैयार हो जाता है। मगर पार्टी में बारबरा को देख कर उसे पुराना समय याद आता है, जब वह नकली शादी करने के दौरान बराबर से प्रेम करने लगता है। बारबरा मोरी में ऐसा हुस्न नहीं है कि कोई धन दौलत का मोह छोड़ कर उसे पाने के लिए अपनी जान दाँव पर लगा दे। राकेश रोशन अनुराग बासु तथा हृथिक-बारबरा की जोड़ी यह स्थापित कर पाने में असफल हुई थी कि उन दोनों के बीच कोई ऐसा रोमांस पैदा हो सकता है। शायद इसी लिए काइट्स का अंतर्राष्ट्रीय संस्करण अमेरिका, आस्ट्रेलिया, आदि देशों के दर्शकों को तमाम गरमा गर्म द्रश्यों के बावजूद आकर्षित नहीं कर सका था। लेकिन ये तो किसी ने भी नहीं सोचा था कि काइट्स की दो कुछ इतने फुसफुसे तरीके से कटेगी।

शनिवार, 22 मई 2010

एक सेकंड में ज़िन्दगी बदलने का स्लाइडिंग डोर्स

अप्रैल में रामगोपाल वर्मा अपनी डरावनी फिल्म फूँक २ से दर्शकों के सामने थे। यकीन जानिए सिनेमाहाल में उपस्थित नाम मात्र के दर्शकों की फूँक तक नहीं सरका सके वर्मा। फूँक २ जापानी कोरियाई फिल्मों का चरबा थी। अब दर्शक होलीवूड के किसी रिमेक से डराए जाने वाले नहीं, बल्कि उन्हें सिहराने की तैयारी है। फिल्म है एक सेकंड जो ज़िन्दगी बदल दे। यह फिल्म भी १३बी की तरह दार्शनिक है। एक सेकंड एक औरत राशि पर केन्द्रित है, जो एक सेकंड के अंतर से ट्रेन पकड़ पाने में सफल और असफल होती है। इस सफलता और असफलता के बीच वह क्या पाती या खोती है, यही फिल्म की कहानी है। फिल्म के एक भाग में राशि ट्रेन पकड़ पाने में असफल होती है। वह पाती है की उसका प्रेमी एक लम्पट प्रकृति का व्यक्ति है और किसी अन्य लड़की से भी उसका अफेयर है। स्लाइडिंग डोर्स का हिंदी रीमेक एक सेकंड जो ज़िन्दगी बदल दे पार्थो घोष ने बनाया है। पार्थो घोष ने अमूमन होलिवुड की फिल्मों के हिंदी रीमेक बना कर ही ख्याति हासिल की है। स्लाइडिंग डोर्स में मुख्य भूमिका के लिए ग्वेन्थ पाल्ट्रो ने जोन लिंच , जिन ट्रिपलहोर्न और वर्जिनिया मैकना को लिया था । पार्थो की फिल्म में मनीषा कोइराला, जैकी श्रोफ, अमन वर्मा और रोजा कैतालिनो निबाह रहे हैं। मनीषा कोइराला के लिए इस फिल्म का कोई ख़ास महत्त्व नहीं, क्यूंकि अब वह शादी कर अपना घर बसने जा रही है। अलबत्ता, इस फिल्म से वह अपनी प्रतिभा का परिचय देकर बोलीवुड के फिल्म निर्माताओं को यह एहसास तो करा ही सकती हैं कि उन्होंने उनकी अभिनय प्रतिभा का भरपूर उपयोग नहीं किया।

कैसे उडेंगी ऐसी काइट्स

काइट्स का बहुत दिनों से इंतज़ार था। ख़ास तौर पर इसलिए कि हृथिक रोशन की दो साल बाद कोई फिल्म रिलीज़ हो रही थी। बारबरा मोरी की काठी सेक्स अपील का ढिंढोरा भी फिल्म की ओर आकृष्ट कर रहा था। फिल्म कोई दो घंटा चार मिनट की है। इतनी कम लम्बाई की फ़िल्में कभी बोर नहीं करती। इन्हें देखते हुए थ्रिल का अनुभव होता है। हृथिक रोशन और बारबरा मोरी को देखने का थ्रिल कुछ ज्यादा ही था। लेकिन फिल्म की शुरुआत ही बेहद ठंडी और ढीली थी। अनुराग बासु ने गैंगस्टर जैसी रोमांटिक थ्रिलर फिल्म बनाई है। राकेश रोशन ने भी बढ़िया, थ्रिल और एक्शन से भरपूर फ़िल्में बनायी है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता की अनुभव की कमी थी। उस पर सोने पर सुहागा हृथिक थे। लेकिन यकीन जानिए इतनी ठंडी रोमांस फिल्म पिछले कई दशकों में नहीं देखी होगी। बार्बर मोरी का सोंदर्य ऐसा हैं की कोई खूबसूरत और चालू लड़का उस पर मर मिटे और अरब पति की बेटी को छोड़ दे। अनुराग बासु ऐसी स्क्रिप्ट लिख पाने में असफल रहे जो दिल को एहसास कराये। ह्रितिक - बारबरा जोड़ी के बीच ऐसी कैमिस्ट्री पैदा ही नहीं हो पायी की रोमांस उभर कर आता। नंगा नारी शरीर ही यदि रोमांस पैदा कर पाता तो रोमांस फ़िल्में बनाना बेहद आसान हो जाता । अनुराग बासु ना तो रोमांस के साथ थ्रिल पैदा कर पाए, न ही थ्रिल के साथ रोमांस पैदा कर पाए। वह इस कनफूजन में रहे कि क्या बनाऊं। शायद उन पर भी ह्रितिक रोशन का स्टार हावी हो गया था। पर फिल्म में तो ह्रितिक रोशन तक बेस्वाद और फीके लगे। इतने ढीले और प्रभावहीन ह्रितिक तो पहले कभी नहीं देखे। काश हिंदी फिल्म निर्माता फिल्म लिखने में कुछ ख़ास ध्यान देते। हो सकता है कि कईट्स की असफलता के बाद फिल्म निर्माता कहानी और स्क्रिप्ट की ओर कुछ ज्यादा ध्यान दें।