बुधवार, 16 जून 2010

दुःख का निवारण : पूजा पाठ

मेरी आज अपने एक सहयोगी से बात हो रही थी। वह इधर काफी समय से परेशान हैं। शारीरिक व्याधियां सता रही हैं। चोट चपेट लग रही है। कहने लगे की मृत्युंजय जाप कराना है। इसके लिए पैसा उधार लिया है। मैंने कहा तुम थोड़ी तनख्वाह पाते हो। कैसे करोगे यह सब। जो अपने बच्चों के लिए करना चाहते हो, वह जाप आदि में ही निकल जायेगा। बच्चों के साथ अन्याय नहीं कर रहे? बोले तो क्या करें। सब कुछ बुरा हो रहा है। मैंने कहा यह क्यूँ नहीं सोच रहे कि जो होनी है वह हो रही है। यह क्यूँ नहीं सोच रहे कि ज्यादा बुरा नहीं हुआ, कम बुरे से सब टल गया। थोड़ा रुक कर उनसे फिर पूछा तुम ईश्वर पर विश्वास करते हो। ईश्वर जो तुम्हारे लिए शुभ है, वही कर रहा है, इस पर विश्वास करते हो। उन्होंने कहा हाँ मैं विश्वास करता हूँ। तब मैंने कहा तो उसके लिखे विधान पर पूजा पाठ क्यूँ? तुम ईश्वर को मजबूर क्यूँ करना चाहते हो कि वह वैसा ही करे, जैसा तुम चाहते हो। क्या यह ईश्वर के कार्य में दखल नहीं? क्या तुम ईश्वर बनना चाहते हो? वह सहमत होने के बावजूद सहमत नहीं थे। बोले पर मेरे साथ जो कुछ हो रहा है, उसका निवारण तो होना ही चाहिए। इस पर मैंने पूछा, क्या तुम ऐसा समझते हो कि पूजा पाठ, तंत्र जाप से सब कुछ ठीक हो जाता है। यह तो बड़ा आसान हुआ। लेकिन, तब तो ऎसी दशा में किसी को दुखी होना ही नहीं चाहिए। हमारा देश हर धर्म के मंदिर, मस्जिद, गिरिजा और गुरुद्वारा वाला देश है। हर घर, हर गली-नुक्कड़ पर कोई न कोई धार्मिक स्थल मिल जायेगा। रास्ता घेरते ये धार्मिक स्थल लोगो को नमन करने पर मजबूर कर देते हैं। तब ऐसे देश में इतना प्राकृतिक प्रकोप क्यूँ? क्या सारे धर्मों के ईश्वर इसे रोक नहीं सकते? रोक सकते हैं, पर रोक नहीं रहे? इसका मतलब यह हुआ कि यह होनी है। तब उसे टालने के प्रयास में अनावश्यक धन और समय की बर्बादी क्यूँ? वह एक बार फिर सहमत हो कर भी असहमत थे। जल्द ही वह पूजा पाठ करवाएंगे। में देखना चाहता हूँ कि उनका दुःख कष्ट मिटा या नहीं।

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