गुरुवार, 3 जून 2010

बस की पांच कवितायेँ.

बस

अँधेरे की कोई उम्र नहीं होती,

बस,

उजाले की एक किरण चाहिए।

(२)

मुझे हाथ बढाने में

कोई ऐतराज़ नहीं

बस, एक हाथ

आगे बढ़ना चाहिए ।

(३)

मेरा ज़ीने का अंदाज़ निराला है,

बस,

मैं थोडा बेफिक्र हूँ।

(४)

वह बड़ी देर तक

मेरे सामने खड़ा रहा

बस, मैं था कि

आसमान के खुदा को देखता रहा।

(५)

मैं बस में चढ़ा

वह बस में चढ़ी,

बस आगे बढ़ी,

उन्हें झटका लगा।

वह मुझ पर गिरी,

मैंने उनको संभाला।

बस आगे बढ़ी,

बात आगे बढीk,

इतना बढी कि

गली मोहल्ले तक बढ़ी,

मैंनेh कहा बस।

हम दोनों ने शादी की

हनीमून मनाया बस पर चढ़ कर।

अब सब कुछ बस है।

मैं जैसे ही कुछ बोलता हूँ,

वह कहती हैं-

बस ।

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