निर्देशक इम्तियाज़ अली की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने दर्शकों को अपनी उलझी कहानी के जाल में उलझा लिया। उनकी फ़िल्म की कहानी बेहद अवास्तविक है। वह जिस आधुनिक प्रेम को दिखा रहे हैं, उसमे आत्मा से अधिक शरीर महत्वपूर्ण है। दीपिका पादुकोण और सैफ अली खान जिस युवा पीढ़ी को रेप्रेजेंट करते, उसे अपने कैरियर से बेहद लगाव है , प्यार व्यार उनके लिए कोई मायने नहीं रखता इसी लिए सैफ ऋषि कपूर की प्रेम कहानी का मजाक udaate रहते हैं कि हीर राँझा और रोमियो जूलियट वाला प्रेम सिर्फ़ किताबों में ही होता है। फ़िर दीपिका अपने जॉब के सिलसिले में इंडिया आती है, सैफ अपने काम में जुट जाते हैं। कुछ समय बाद वह अपनी प्रेमिका के साथ दीपिका से मिलाने जाते हैं। दीपिका भी भारत में अपने एक सहयोगी से प्रेम करने लगती है और उनकी शादी होने वाली है। इस बीच दोनों मिलकर एक दो गीत भी मार देते हैं। तब तक दोनों के बीच प्रेम की शिद्दत नहीं दिखायी पड़ती। बाद में सैफ वापस चले जाते हैं और दीपिका की शादी राहुल खन्ना से हो जाती है। बस शादी होते ही दीपिका को एहसास होता है की वह सैफ से कितना प्यार करती है। अब यह बात दीगर है कि सैफ को ऐसा एहसास उस समय भी नहीं होता। उसे यह एहसास होता है कुछ साल बाद। ऐसा एहसास होते ही वह भारत आता है दीपिका से मिलाने। क्यूँ भाई इम्तियाज़, यह आपने कैसे युवा दिखाए हैं जो ज़रा भी लोजिकल नहीं हैं। शारीरिक संबंधों से आगे सोंचते नहीं। जब सोचते भी हैं तो कमाल का ट्विस्ट पैदा कर देते हैं।
इम्तियाज़ भाई आपने कभी प्यार किया है या नही ? यदि किया है तो आपका प्यार कैसा है? ऋषि कपूर वाला या आधुनिक सैफ वाला? यदि आपने ऋषि वाला प्यार किया है तो आप मानेंगे कि प्यार एक पल की जुदाई सहन नहीं कर सकता। यदि आप किसी से प्यार करते हैं तो उसे एक पल भी नहीं देख पाना गंवारा नहीं कर सकते। फ़िल्म देख कर तो ऐसा लगता है जैसे आपने कोई वाला प्यार नहीं किया। आपने केवल किताबों में प्यार को पढा और कथित आधुनिक प्यार से तुलना कर दी।
एक बात और समझ में नहीं आयी। रिशी कपूर ख़ुद की कहानी याद करते समय ख़ुद में युवा सैफ को देखता है, पर हरलीन में युवा दीपिका को क्यूँ नहीं देखता। क्या सैफ ने कहा था कि केवल वही दोहरी भूमिका करेंगे, दीपिका नहीं। या आपको यह भय था कि दोहरी भूमिका करते करते दीपिका कहीं स्टीरियो टाइप ना हो जाए। यदि आपको ऋषि को युवा देखना चाहते थे तो रणबीर कपूर को ले लेते। पर ऎसी दशा में सैफ रणबीर से मात खा जाते। क्या कोई निर्माता कभी किसी अन्य ऐक्टर से मात खा सकता है? नहीं ना!
बहरहाल, खान अभिनेता बढ़िया प्रचारक साबित हो रहे हैं। अब देखने की बात होगी की सलमान खान अपनी फ़िल्म वांटेड का कैसा बढ़िया प्रचार करते हैं।
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रविवार, 9 अगस्त 2009
रविवार, 19 जुलाई 2009
बॉलीवुड पर भारी हॉलीवुड
इसमे कोई शक नहीं कि बॉलीवुड पर हॉलीवुड की फिल्में भारी पड़ रहीं हैं। ऐसा स्वाभाविक है। हॉलीवुड की तमाम फिल्में अच्छी स्क्रिप्ट के साथ पूरी कल्पनाशीलता से बनायी जाती हैं। इनमे बड़ों और बच्चों के समान मनोरंजन का ख्याल रखा जाता है। १७ जुलाई को प्रर्दशित हिन्दी फ़िल्म जश्न और बॉलीवुड की अंग्रेजी के अलावा हिन्दी, तमिल और तेलुगु में डब फ़िल्म हैरी पॉटर एंड द हाफ ब्लड प्रिन्स ताजातरीन उदहारण हैं। द हाफ ब्लड प्रिन्स हैरी पॉटर सीरीज़ की छठीं फ़िल्म हैं। यह फ़िल्म पूरे विश्व में दो दिन पहले रिलीज़ होकर बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा रही। भारतीय बॉक्स ऑफिस पर भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। वहीँ दूसरी ओर अध्ययन सुमन और अंजना सुखानी की फ़िल्म जश्न इंडिया के बॉक्स ऑफिस पर शोक मना रही है। यह फ़िल्म पहले ही शो से फ्लॉप फ़िल्म मान ली गई है। इस फ़िल्म में ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए दर्शक इसे देखने सिनेमा हॉल्स तक जायें और अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च करें। कहानी घिसी पिटी और बेकार है, निर्देशन में कल्पनाशीलता का अभाव हैं। गीत संगीत तो किसी काम का नहीं है। ऐसा लगता है जैसे भट्ट बंधुओं का पतन शुरू हो गया है। उम्मीद की जाती थी की एक सिंगर पर केंद्रित फ़िल्म का एंड बेहद शानदार और सुरीला होगा, ताकि दर्शक अपने हीरो की जीत के साथ साथ फ़िल्म के क्लाइमक्स को लंबे समय तक याद रखें मगर अफ़सोस कि फ़िल्म का अंत बेहद निराशाजनक, कल्पनाहीन, बचकाना और बेसुरा था। यूँ यहाँ यह कहना उपयुक्त नहीं होगा की हैरी पॉटर की छटी सीरीज़ बहुत बढ़िया थी। इसका अंत भी अकस्मात् और इंडियन औडिएंस की दृष्टी से समझ में नहीं आने वाला था। मगर यह फ़िल्म उत्कृष्ट तकनीक, जादू, कल्पनाशील निर्देशन और चुस्त पटकथा के कारण दर्शकों को आकर्षित करती है और उन्हें अंत तक बांधे रखती है। इसे बच्चों और बड़ों द्वारा सामान रूप से पसंद किया जा रहा है। क्या हिन्दी फ़िल्म निर्माताओं से किसी ऐसे फ़िल्म की उम्मीद की जाए जो हॉलीवुड के घर में घुस कर हॉलीवुड की फ़िल्म को पछाडे। हम भारतीय तो उम्मीद करेंगे ही।
मंगलवार, 14 जुलाई 2009
अभिनेत्री प्रिटी जिंटा, अपनी १८ साल की नौकरानी के साथ बलात्कार के आरोप में १४ जून से जेल में बंद अभिनेता शाइनी आहूजा के समर्थन में खुलकर सामने आई हैं। शाइनी को उनका यह समर्थन किसी व्यासायिक संबंधों का परिणाम नहीं। क्यूंकि वह शाइनी के साथ कोई भी फ़िल्म नहीं कर रहीं या करने जा रही हैं। उनका यह समर्थन भावनात्मक है। एक ऐसी स्त्री की भावना जो अभिनेत्री होने के बावजूद घर परिवार वाली है। वह कहती हैं कि जो लोग शाइनी को लेकर मसालेदार बातें कर या लिख रहे है, शाइनी की फॅमिली के साथ अन्याय कर रहे हैं। अभी शाइनी का अपराध सिद्ध नहीं हुआ है। पर उन्हें इस प्रकार पेश किया जा रहा है जैसे वह बलात्कारी साबित हो गया हो। यह तथ्य है की शाइनी एक ऐसा अभिनेता है, जो अपने काम को समर्पित है। वह अंतर्मुखी है। सेट पर शोट के बाद अन्य अभिनेताओं की तरह अपनी अभिनेत्रियों से फ्लर्ट नहीं करता। कभी कोई शिकायत नहीं आई कि उसने अपनी फ़िल्म की यूनिट के किसी सदस्य के साथ कभी कोई छेड़छाड़ की हो। तब उस पर ज़बरदस्ती किए जाने का आरोप तय कैसे पाया गया कि उन्हें हिकारत की नज़रों से देखा जा रहा है। उनके परिवार की भावनाओं का ख्याल किए बिना कमेंट्स किए जा रहे हैं। जहाँ प्रिटी जिंटा इसके लिए बधाई की पत्र हैं, वही फ़िल्म इंडस्ट्री के वह तमाम लोगों की चुप्पी निंदा के काबिल है,जो कभी सलमान खान और कभी संजय दत्त के गंभीर देश द्रोह जैसे अपराधों में फंसा होने के बावजूद जेल के आगे खड़े नज़र आते थे और प्रेस में ऐसे बयानबाजी किया करते थे जैसे वही निर्णय करने वाले हैं। साफ़ तौर पर चूंकि शाइनी के ऊपर इंडस्ट्री का अरबों रूपया फंसा नहीं है, इसलिए वह दूर से तमाशा देख रही है। पर इसमे कोई शक नहीं कि इस प्रकार से वह अनैतिक और खलनायक जैसे नज़र आ रही है। ऐसे समय में प्रिटी जिंटा का सामने आना न केवल स्वागत योग्य है, बल्कि उनके कारण फ़िल्म इंडस्ट्री की घटिया इमेज में थोड़ा सुधार आने कि पूरी संभावना है। वैसे प्रिटी जिंटा पहले भी अंडरवर्ल्ड के विरुद्ध बोल कर ख़ुद को मर्द अभिनेत्री साबित कर चुकीं हैं। फ़िर से बधाई प्रिटी जिंटा।
सोमवार, 13 जुलाई 2009
क्या यही लव आज कल है?
अभी फ़िल्म लव आज कल के निर्देशक इम्तियाज़ अली बोले कि मेरी फ़िल्म में फिल्थी संवाद हैं, चुम्बन हैं और सैफ ने दीपिका के बट पर हाथ फेरा है इसके बावजूद फ़िल्म फॅमिली ड्रामा है। यह यूथ को पसंद आने वाली फ़िल्म है। अर्थात टारगेट औडिएंस यूथ है। यह क्या बात हुई। आज का इंडियन यूथ का मतलब फिल्थी लैंग्वेज बोलने और पसंद करने वाला ही युवा है। वह अपनी प्रेमिका के बट पर हाथ फेर कर ही सुख पाता है। अभी कमबख्त इश्क की सफलता को देखते हुए तो ऐसा ही लगता है। लेकिन क्या यह अर्धसत्य नहीं? भेजा फ्राई को हिट किसने बनाया? ९९ किसने पसंद की? न्यू यार्क का दर्शक कौन है? क्या यह कमबख्त इश्क को हिट बनने वाला दर्शक नहीं? यदि फिल्थी लैंग्वेज और सेक्स यूथ की पसंद होती तो झूम बराबर झूम को फ्लॉप नहीं होना चाहिए था। निश्चय ही रब ने बना दी जोड़ी तो सुपर फ्लॉप फ़िल्म बननी चाहिए थी। इसलिए इम्तियाज़ ऐसा कह कर अपनी सोचा न था और जब वे मेट से बनी प्रतिष्ठा को ख़त्म कर रहे है।
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