सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

भ्रष्ट भी, और अब आलसी भी

अख़बारों में खबर पढ़ कर बड़ा अजीब सा लगा। हमारे देश के उद्योगों में अब विदेशी प्रवेश हो गया है। विदेशी कंपनियां आती तो बात दूसरी थी, यहाँ तो विदेशी लेबर हमारे देशी उद्योगों में पाँव जमा रहा है। चीनी मजदूरों का हमारे उद्योगों में योगदान हमारे लिए शर्म की बात है। किसी तकनीकी ज़रुरत के कारण चीनी मजदूरों का आना समझ में आता है। मगर, वोह इसलिए हमारे देश के उद्योगों में ज़गह पायें, कि हम आलसी हैं, हमारे लिए सचमुच शर्म की बात है। अभी तक हम भ्रष्टाचार के मामले में अन्य देशों को चुनौती पेश कर रहे थे, अब हमारा आलसी भी होना, यह साबित करता है कि हम लोग पतित से पतित होते जा रहे हैं। हमारा जन गन मन पतित है और कुछ ज्यादा पतित होता जा रहा है। क्या कभी हम इससे उबरने की कोशिश करेंगे?

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

ऑफिस में मेरा अंतिम दिन

३० सितम्बर २०१०। ऑफिस में मेरा आखरी दिन । आम तौर पर उस दिन फाइल नहीं की जातीं। सो मुझे भी फाइल नहीं भेजी गयीं। मैंने केवल एक फाइल की, अपने कार्य भार छोड़ने के प्रमाण पत्र पर निदेशक के काउंटर साइन हेतु। मैंने यह सब बिलकुल मशीन की तरह किया। मुझे अपनी ३३ साल की सेवा के बाद अकस्मात् ही स्वेच्छिक सेवा निवृति लेनी पड़ी। परिस्थितियां कुछ ऎसी थीं कि जीने या नौकरी करने में से किसी एक को चुनना था। मैंने नौकरी छोड़ना उचित समझा। इस नौकरशाही, इस शासन में कुछ ऐसा परिवर्तन हो गया है कि सत्ता और शासन ने सोचना छोड़ दिया है। ईमानदारी अनावश्यक हो गयी है। आप नौकरी क्यूँ छोड़ रहें है, कोई पूछने वाला नहीं, कोई परवाह करने वाला नहीं। मुझसे भी किसी ने पूछा नहीं, मेरी कठिनायीं जानने की कोई कोशिश नहीं की गयी। ३३ साल की प्रतिबद्ध सेवा का पुरूस्कार त्यागपत्र बड़े निरपेक्ष रूप से स्वीकार कर लेने के रूप में मिला। इसीलिए, जब मैंने अंतिम दिन कार्य भार प्रमाणक पर हस्ताक्षर किये तो एक पल भी कोई गिला, शिकवा नहीं था। शायद मैं भी हृदयहीन शासन सत्ता की तरह हो गया था।